आज जुलाई का आखिरी दिन, यानी यह महिना भी बच्चों के पढ़ाई के लिये लिए खत्म| इस महीने को मैं इस लिए भी खास मानता हूं क्योंकि यह किसी भी बच्चे के पढ़ाई के लिये नया होता है| चाहे वह प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया हो या फिर अपनी पुरानी कक्षा को उत्तीर्ण करके अगली कक्षा में पहुँच चूका हो| और अनुउत्तीर्ण हो चूके छात्र के लिए भी तो नए उत्साह एवं नए प्रयास के माध्यम से इस महीने को खास माना जा सकता है|
छात्रों की बात खत्म करके, बड़ी फुरसत से मैं एक लम्बी बात करने जा रहा हूँ, अपना देश की वर्तमान शिक्षा नीति और उसकी स्थिति के बारे में| इस मुद्दे को मैंने कई मंचो से सुना, पर शायद वह भी किसी आवाज की तरह कुछ ही दूर जाकर दब जाती है| तो सोचा अपना खुद का विचार भी साझा क्यों न किया जाए? बहुत दिन से यह विचार मन में कौंध रहा था| अब जाकर कह पा रहा हूँ| लोगों का सहमत होना या न होना मेरे लिये कोई मायने नही| क्योंकि यह मुझे भलिभाँती रूप से पता है जिस संसार में तरह तरह आचार विचार के लोग मौजूद हो उनके बीच सब मेरी बातों से सहमत हो तो, हो नही सकता| अपना विचार हैं, आपके बीच रखकर खत्म कर दूँगा|
देश में वर्तमान समय पर दो तरीके से शिक्षा चलाई जा रही हैं| एक सरकारी स्कूल के माध्यम से, दूसरा प्राइवेट स्कूल के माध्यम से| सच में अगर देखा जाय तो इस जुलाई के आखिरी दिन तक जहाँ सरकारी स्कूल का बच्चा अपने स्कूल जाने की तैयारी पूरी करने में व्यस्त होगा, वही प्राइवेट स्कूल का बच्चा अपने अध्ययन सेलेबस का कुछ भाग पूरा कर चूका होगा| और यह भी तय हो चूका होगा की अगले आने वाले माह के लिए कौन बच्चा पढ़ाई के लिए तैयार है या फिर उसकी कौन सी कमजोरी उस माह के लिए तैयार नही कर सकी, उसका हल क्या होगा आदि आदि| फिर उसके परिजन की बैठक भी की गई होगी| उसमें बताया गया होगा की उनके बच्चे में क्या कमी पाई गई इत्यादि| बच्चे के स्कूल न आने का बकायदा कारण पूछा गया होगा|
किन्तु क्या सरकारी स्कूल में भी ऐसा किया गया होगा, जहाँ तक मेरा मानना होगा तो बिलकुल भी नहीं| कई बच्चों को तो मालूम नहीं होगा की उनका दाखिला भी स्कूल में हो चूका| और उसको ग्यात भी हो चूका होगा तो स्कूल न जाने के बहाने में ही पंद्रह दिन व्यतीत कर चूका होगा| जैसे मेरे पास पेन नही है, कैसे लिखूगां| अभी कापी भी नहीं आई| कही गणवेश ही नहीं है, कोई उसका पड़ोसी साथी नही गया तो उसने भी स्कूल न जाने मैं भलाई समझा आदि आदि|
फिर मैं सोच रहा हूँ कि इसे किसकी लापरवाही समझे? उस बच्चे की, या फिर उस माँ बाप की जिसने अपने बेटे को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया| या उस स्कूल के प्राचार्य व शिक्षकों की | या फिर अपने ही देश के इस दोहरी शिक्षा नीति की| समझ में नहीं आता| एक बच्चा है जिसे भूत भविष्य का ग्यान नही| वह सही कर रहा है या गलत का कोई आभास नही| उसके लिये तो स्कूल न जाने का विकल्प ही बेहतर है| और वो माँ बाप जो अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर के कारण बच्चे का सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाकर अपने निजी जीविका की उलझन में व्यस्त हैं, बेटा कब स्कूल से आया कब गया कोई पूछताछ नही| किसी दिन गली में घूमते दिख गया तो या उसके बहाने से संतुष्ट हो गये या फिर दो चार तमाचे की बौछार से सही रास्ते लाने का प्रयास कर लिए| उनके लिए यही काफी है| फिर उस स्कूल के शिक्षक जिन्हें अभी नए प्रवेश लेने से फुर्सत नही या फिर कई कारण जिनकी बजह से वो कक्ष कमरे में कदम भी नहीं रखे होंगें| फिर उनको क्या पता कक्षा में क्या चल रहा है? पुस्तक और अध्ययन की तो बात दूसरी|
अब बात उनकी जो इस नीति के बनाने से लेकर संचालन की जिम्मेदारी निभा रहे हैं| जिनके माध्यम से ही देश की पढ़ाई दो भाग में बटकर अलग थलग पड़ी दिखाई दे रही है| जिन स्कूलों में उनके बच्चों को प्रवेश मिला, उसकी स्थिति तो एक दम दृढ़ और कमजोर वर्ग के बच्चे जहाँ पढ़ रहे हैं उसकी स्थिति एक दम दयनीय| इससे हम अपने देश को आगे ले जाने की सोच रहे हैं| हम चाहते हैं की हमारा देश विश्व गुरू बने, और खूब तरक्की हो| सारे दुनिया में बस हमारे देश का नाम गुंजे| पर क्या किसी को पता है कि यह सोच हमारे देश तक सीमित रह जायेगी| बहुत सुना गया मेरे द्वारा की बच्चे ही देश के भविष्य होते हैं, तो फिर क्या अमीर और ये नेताधिकारीयों के बच्चे बस ही देश के भविष्य हैं| उनका क्या जो एक माध्यम या फिर गरीब तबके में जन्म लिये, सरकारी स्कूल में प्रवेश लिये| और कुछ दिन बाद कोरी किताब का कोरा ग्यान लेकर वो देश का भविष्य सवारेंगे| चलो कुछ आरक्षण के माध्यम से कुछ हासिल कर भी लेंगे तो कितना दूर तक की सोच सकते हैं| पहली बात तो उनकी यह खुशी ही चैन से नहीं बैठने देगी की मैंने एक 95 प्रतिशत वाले को 55 प्रतिशत लाकर पछाड़ दिया|
मैं आरक्षण को लेकर इस लेख में बात नहीं करना चाहता| बस इतना ही स्पष्ट करना चाहता हूँ कि आप उनकी फीस माफ करो, उनका स्थान भी निश्चित करो, मगर कम से कम उसके लिए उचित योग्यता तो वही रखो जो एक बिना आरक्षण के लिए मापदण्ड बना हुआ है| सीटें नही भरी तो क्या हुआ अगली बार फिर से सभी के द्वारा प्रयास किया जायेगा| बस इतना ही कहकर इस विषय पर बाद में भी विचार किया जा सकता है| परन्तु इससे अपने देश की शिक्षा भी सुधारी जा सकती है, बच्चों को बचपन से ही एक अच्छे मुकाम हासिल करने के लिए मेहनत करने की आदत तो बनी रह सकती हैं| और फिर अपने देश की स्थिति कैसे नही सुधारती? कहना भला|
पर शिक्षा के इस स्थिती के बारे में किसे पड़ी है? कौन भला फुरसत में है| हमारा भी क्या अपना विचार है साझा करके दरकिनारे हो लेगें| बच्चों की दयनीय स्थिति भी वही बनी रहेगी| खासतौर से उनकी जिनको सरकारी स्कूल में किताबी ग्यान के भरोसे भविष्य टिका हुआ हो|
स्कूल में ग्यान मिलता हो या नहीं, खाने को दाल-चावल, पूड़ी-पुलाव, हलवा-खीर आदि, आने जाने के लिए साइकल, और साल में एक या दो बार छात्रवृत्ति, जिसका इंतजार बच्चों को कई दिन से होता| और वह सुविधा क्यों दी जा रही हैं के बारे में सिर्फ इतनी ही जानकारी होती है कि वो सरकारी स्कूल में पढ़ते है इसलिए| किसी किसी बच्चे के माँ बाप थोड़े बहुत इंतजाम करके किसी छोटी सी प्राइवेट स्कूल में प्रवेश दिलवा भी देते हैं तो सरकारी स्कूल का वह सुविधा का लालच बच्चों को सरकारी स्कूल की ओर बार बार खींच लेता है | पढ़ने में मन नही लगता| और परिणाम वह भी बहाने बनाना प्रारंभ कर देता है| और एक वक्त आता है जहाँ उसके माँ बाप भी हारकर उस बच्चे को प्राइवेट स्कूल से नाम हटवा सरकारी स्कूल में करवा देते है| जहाँ वह बच्चा अपने साथी और सरकारी सुविधा से बहुत खुश नजर आता है| मगर शायद उसे उस वक्त यह पता नहीं होता कि सरकारी स्कूल में पढ़ने के बाद आप इतने काबिल नही बन सकते जो या तो सरकारी नौकरी में किसी अच्छे पद को प्राप्त कर सके या फिर किसी बड़े समूह या कम्पनी पर पदस्थ हो सकते| यदि ऐसा होता तो अमीर वर्ग और नेता पदाधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नही पढा़ते| स्थिति अब जाकर समझ में आ गई होगी कि यह हमारे देश में दोहरी शिक्षा नीति क्यों प्रचलित हैं| ताकि पिछड़ा वर्ग का चाहे कुछ भी हो जाये किन्तु वो किसी से आगें न हो सके|
मैं कब तक आप लोगों को इस शिक्षा नीति को बनाने और संचालित करने वालों के बारे में कह कह कर ऊबाता रहूंगा| इसलिए स्कूल में होने वाली पढ़ाई का रूप भी निहार लेते हैं| प्राइवेट स्कूल की पढ़ाई तो मुझे नहीं पता बस इतना जरूर पता है कि वहां हर नियम का पालन बडी सख्ती से किया जाता है फिर चाहे वह शिक्षक के लिये हो या फिर छात्रों के लिए| यहाँ तक की बच्चों के परिजन और स्कूल के चपरासी को भी कोई टाल मठोली करते देख पाना कम ही हो पाता है | अच्छी बात है आखिर वहाँ पढ़ने वालो से मेरी क्या दुश्मनी| बच्चे तो बच्चे होते हैं| उनका भविष्य अवश्य उज्जवल हो| पर किसी सरकारी स्कूल के बच्चों के शिक्षा का भी स्तर में सुधार हो जाए तो क्या बुराई है? ये दोहरी शिक्षा की नीति बंद हो जाए तो क्या बुराई है? अमीर नेता पदाधिकारी और एक मजदूर गरीब किसान साधारण व्यापारी व चपरासी का बच्चा एक साथ एक ही छत के नीचे पढ़ने लगे तो क्या बुराई है? एक सरकारी स्कूल में मिलने वाली सुविधा के साथ अच्छी पढ़ाई का वातावरण बन जाए तो क्या बुराई? कौन सुनता है? साहब सब कहने की बाते हैं| अगर ऐसा हो गया तो विदेश में जाकर कमाई करने वाले लोगों में वृध्दि हो जायेगी | उनके बच्चे उन जैसे गरीब तबके बच्चों के साथ एक कतार में खड़े हो जायेगें,वगैरा वगैरा जबाव सुनाई देने लगेगा|
पर मेरे मन में ख्याल आता है कि नेता पदाधिकारी लोगों के दिल में उन गरीब बच्चों के भविष्य से क्या दुश्मनी पनपती रहती है| कई कानून बन गये, कई बदल दिये गये| पर आज तक सामान शिक्षा व्यवस्था लागू करने का कोई जिक्र तक नहीं आया| बल्कि अब तो और स्थिति गल चूकी जबसे परिक्छा में उपस्थिति हो न हो किन्तु नाम लिखा है तो उत्तीर्ण मानकर अगले कक्षा में पहुंचा दिया जाता है| लगभग अपनी आधी उम्र पढ़ने के बाद बाकी की उम्र एक अच्छी नौकरी की तलाश में बिता देता है | नही फिर चोरी चाकरी या लूट पूट चालू कर देना प्रांरभ कर देता है | पहले का जमाना गया जब पानी बिजली की सुविधा हो या न हो किन्तु भगवान ही इतनी बारिश कर देता था कि कम से कम फसल बिना कोई रासायनिक खाद के ही उत्पादित हो जाती थी| आज उसके लिए भी कितनी मेहनत करनी पड़ती हैं वही जाने| पर इससे क्या फायदा| एक वक्त आता है जहाँ वादे और अश्वासन दिलाकर अपनी कुर्सी का लालच पूरा हो जाता है फिर किसलिए कोई किसी की फिक्र करे|
और आज की हर पीढ़ी जो अपनी पढ़ाई पूरी नही कर पाये उन्हें पता है कि कौन सी बजह है| अगर आज भी पूरे देश में एकल शिक्षा नीति संचालित हो जाए तो असली विकास होने से देश को कोई नहीं रोक सकता| फिर चाहे वह सरकारी स्कूल ही हो या फिर प्राइवेट स्कूल|
कलम -
सूरज कुमार साहू नील,
बान्धवगढ उमारिया मप्र
#स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
छात्रों की बात खत्म करके, बड़ी फुरसत से मैं एक लम्बी बात करने जा रहा हूँ, अपना देश की वर्तमान शिक्षा नीति और उसकी स्थिति के बारे में| इस मुद्दे को मैंने कई मंचो से सुना, पर शायद वह भी किसी आवाज की तरह कुछ ही दूर जाकर दब जाती है| तो सोचा अपना खुद का विचार भी साझा क्यों न किया जाए? बहुत दिन से यह विचार मन में कौंध रहा था| अब जाकर कह पा रहा हूँ| लोगों का सहमत होना या न होना मेरे लिये कोई मायने नही| क्योंकि यह मुझे भलिभाँती रूप से पता है जिस संसार में तरह तरह आचार विचार के लोग मौजूद हो उनके बीच सब मेरी बातों से सहमत हो तो, हो नही सकता| अपना विचार हैं, आपके बीच रखकर खत्म कर दूँगा|
देश में वर्तमान समय पर दो तरीके से शिक्षा चलाई जा रही हैं| एक सरकारी स्कूल के माध्यम से, दूसरा प्राइवेट स्कूल के माध्यम से| सच में अगर देखा जाय तो इस जुलाई के आखिरी दिन तक जहाँ सरकारी स्कूल का बच्चा अपने स्कूल जाने की तैयारी पूरी करने में व्यस्त होगा, वही प्राइवेट स्कूल का बच्चा अपने अध्ययन सेलेबस का कुछ भाग पूरा कर चूका होगा| और यह भी तय हो चूका होगा की अगले आने वाले माह के लिए कौन बच्चा पढ़ाई के लिए तैयार है या फिर उसकी कौन सी कमजोरी उस माह के लिए तैयार नही कर सकी, उसका हल क्या होगा आदि आदि| फिर उसके परिजन की बैठक भी की गई होगी| उसमें बताया गया होगा की उनके बच्चे में क्या कमी पाई गई इत्यादि| बच्चे के स्कूल न आने का बकायदा कारण पूछा गया होगा|
किन्तु क्या सरकारी स्कूल में भी ऐसा किया गया होगा, जहाँ तक मेरा मानना होगा तो बिलकुल भी नहीं| कई बच्चों को तो मालूम नहीं होगा की उनका दाखिला भी स्कूल में हो चूका| और उसको ग्यात भी हो चूका होगा तो स्कूल न जाने के बहाने में ही पंद्रह दिन व्यतीत कर चूका होगा| जैसे मेरे पास पेन नही है, कैसे लिखूगां| अभी कापी भी नहीं आई| कही गणवेश ही नहीं है, कोई उसका पड़ोसी साथी नही गया तो उसने भी स्कूल न जाने मैं भलाई समझा आदि आदि|
फिर मैं सोच रहा हूँ कि इसे किसकी लापरवाही समझे? उस बच्चे की, या फिर उस माँ बाप की जिसने अपने बेटे को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया| या उस स्कूल के प्राचार्य व शिक्षकों की | या फिर अपने ही देश के इस दोहरी शिक्षा नीति की| समझ में नहीं आता| एक बच्चा है जिसे भूत भविष्य का ग्यान नही| वह सही कर रहा है या गलत का कोई आभास नही| उसके लिये तो स्कूल न जाने का विकल्प ही बेहतर है| और वो माँ बाप जो अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर के कारण बच्चे का सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाकर अपने निजी जीविका की उलझन में व्यस्त हैं, बेटा कब स्कूल से आया कब गया कोई पूछताछ नही| किसी दिन गली में घूमते दिख गया तो या उसके बहाने से संतुष्ट हो गये या फिर दो चार तमाचे की बौछार से सही रास्ते लाने का प्रयास कर लिए| उनके लिए यही काफी है| फिर उस स्कूल के शिक्षक जिन्हें अभी नए प्रवेश लेने से फुर्सत नही या फिर कई कारण जिनकी बजह से वो कक्ष कमरे में कदम भी नहीं रखे होंगें| फिर उनको क्या पता कक्षा में क्या चल रहा है? पुस्तक और अध्ययन की तो बात दूसरी|
अब बात उनकी जो इस नीति के बनाने से लेकर संचालन की जिम्मेदारी निभा रहे हैं| जिनके माध्यम से ही देश की पढ़ाई दो भाग में बटकर अलग थलग पड़ी दिखाई दे रही है| जिन स्कूलों में उनके बच्चों को प्रवेश मिला, उसकी स्थिति तो एक दम दृढ़ और कमजोर वर्ग के बच्चे जहाँ पढ़ रहे हैं उसकी स्थिति एक दम दयनीय| इससे हम अपने देश को आगे ले जाने की सोच रहे हैं| हम चाहते हैं की हमारा देश विश्व गुरू बने, और खूब तरक्की हो| सारे दुनिया में बस हमारे देश का नाम गुंजे| पर क्या किसी को पता है कि यह सोच हमारे देश तक सीमित रह जायेगी| बहुत सुना गया मेरे द्वारा की बच्चे ही देश के भविष्य होते हैं, तो फिर क्या अमीर और ये नेताधिकारीयों के बच्चे बस ही देश के भविष्य हैं| उनका क्या जो एक माध्यम या फिर गरीब तबके में जन्म लिये, सरकारी स्कूल में प्रवेश लिये| और कुछ दिन बाद कोरी किताब का कोरा ग्यान लेकर वो देश का भविष्य सवारेंगे| चलो कुछ आरक्षण के माध्यम से कुछ हासिल कर भी लेंगे तो कितना दूर तक की सोच सकते हैं| पहली बात तो उनकी यह खुशी ही चैन से नहीं बैठने देगी की मैंने एक 95 प्रतिशत वाले को 55 प्रतिशत लाकर पछाड़ दिया|
मैं आरक्षण को लेकर इस लेख में बात नहीं करना चाहता| बस इतना ही स्पष्ट करना चाहता हूँ कि आप उनकी फीस माफ करो, उनका स्थान भी निश्चित करो, मगर कम से कम उसके लिए उचित योग्यता तो वही रखो जो एक बिना आरक्षण के लिए मापदण्ड बना हुआ है| सीटें नही भरी तो क्या हुआ अगली बार फिर से सभी के द्वारा प्रयास किया जायेगा| बस इतना ही कहकर इस विषय पर बाद में भी विचार किया जा सकता है| परन्तु इससे अपने देश की शिक्षा भी सुधारी जा सकती है, बच्चों को बचपन से ही एक अच्छे मुकाम हासिल करने के लिए मेहनत करने की आदत तो बनी रह सकती हैं| और फिर अपने देश की स्थिति कैसे नही सुधारती? कहना भला|
पर शिक्षा के इस स्थिती के बारे में किसे पड़ी है? कौन भला फुरसत में है| हमारा भी क्या अपना विचार है साझा करके दरकिनारे हो लेगें| बच्चों की दयनीय स्थिति भी वही बनी रहेगी| खासतौर से उनकी जिनको सरकारी स्कूल में किताबी ग्यान के भरोसे भविष्य टिका हुआ हो|
स्कूल में ग्यान मिलता हो या नहीं, खाने को दाल-चावल, पूड़ी-पुलाव, हलवा-खीर आदि, आने जाने के लिए साइकल, और साल में एक या दो बार छात्रवृत्ति, जिसका इंतजार बच्चों को कई दिन से होता| और वह सुविधा क्यों दी जा रही हैं के बारे में सिर्फ इतनी ही जानकारी होती है कि वो सरकारी स्कूल में पढ़ते है इसलिए| किसी किसी बच्चे के माँ बाप थोड़े बहुत इंतजाम करके किसी छोटी सी प्राइवेट स्कूल में प्रवेश दिलवा भी देते हैं तो सरकारी स्कूल का वह सुविधा का लालच बच्चों को सरकारी स्कूल की ओर बार बार खींच लेता है | पढ़ने में मन नही लगता| और परिणाम वह भी बहाने बनाना प्रारंभ कर देता है| और एक वक्त आता है जहाँ उसके माँ बाप भी हारकर उस बच्चे को प्राइवेट स्कूल से नाम हटवा सरकारी स्कूल में करवा देते है| जहाँ वह बच्चा अपने साथी और सरकारी सुविधा से बहुत खुश नजर आता है| मगर शायद उसे उस वक्त यह पता नहीं होता कि सरकारी स्कूल में पढ़ने के बाद आप इतने काबिल नही बन सकते जो या तो सरकारी नौकरी में किसी अच्छे पद को प्राप्त कर सके या फिर किसी बड़े समूह या कम्पनी पर पदस्थ हो सकते| यदि ऐसा होता तो अमीर वर्ग और नेता पदाधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नही पढा़ते| स्थिति अब जाकर समझ में आ गई होगी कि यह हमारे देश में दोहरी शिक्षा नीति क्यों प्रचलित हैं| ताकि पिछड़ा वर्ग का चाहे कुछ भी हो जाये किन्तु वो किसी से आगें न हो सके|
मैं कब तक आप लोगों को इस शिक्षा नीति को बनाने और संचालित करने वालों के बारे में कह कह कर ऊबाता रहूंगा| इसलिए स्कूल में होने वाली पढ़ाई का रूप भी निहार लेते हैं| प्राइवेट स्कूल की पढ़ाई तो मुझे नहीं पता बस इतना जरूर पता है कि वहां हर नियम का पालन बडी सख्ती से किया जाता है फिर चाहे वह शिक्षक के लिये हो या फिर छात्रों के लिए| यहाँ तक की बच्चों के परिजन और स्कूल के चपरासी को भी कोई टाल मठोली करते देख पाना कम ही हो पाता है | अच्छी बात है आखिर वहाँ पढ़ने वालो से मेरी क्या दुश्मनी| बच्चे तो बच्चे होते हैं| उनका भविष्य अवश्य उज्जवल हो| पर किसी सरकारी स्कूल के बच्चों के शिक्षा का भी स्तर में सुधार हो जाए तो क्या बुराई है? ये दोहरी शिक्षा की नीति बंद हो जाए तो क्या बुराई है? अमीर नेता पदाधिकारी और एक मजदूर गरीब किसान साधारण व्यापारी व चपरासी का बच्चा एक साथ एक ही छत के नीचे पढ़ने लगे तो क्या बुराई है? एक सरकारी स्कूल में मिलने वाली सुविधा के साथ अच्छी पढ़ाई का वातावरण बन जाए तो क्या बुराई? कौन सुनता है? साहब सब कहने की बाते हैं| अगर ऐसा हो गया तो विदेश में जाकर कमाई करने वाले लोगों में वृध्दि हो जायेगी | उनके बच्चे उन जैसे गरीब तबके बच्चों के साथ एक कतार में खड़े हो जायेगें,वगैरा वगैरा जबाव सुनाई देने लगेगा|
पर मेरे मन में ख्याल आता है कि नेता पदाधिकारी लोगों के दिल में उन गरीब बच्चों के भविष्य से क्या दुश्मनी पनपती रहती है| कई कानून बन गये, कई बदल दिये गये| पर आज तक सामान शिक्षा व्यवस्था लागू करने का कोई जिक्र तक नहीं आया| बल्कि अब तो और स्थिति गल चूकी जबसे परिक्छा में उपस्थिति हो न हो किन्तु नाम लिखा है तो उत्तीर्ण मानकर अगले कक्षा में पहुंचा दिया जाता है| लगभग अपनी आधी उम्र पढ़ने के बाद बाकी की उम्र एक अच्छी नौकरी की तलाश में बिता देता है | नही फिर चोरी चाकरी या लूट पूट चालू कर देना प्रांरभ कर देता है | पहले का जमाना गया जब पानी बिजली की सुविधा हो या न हो किन्तु भगवान ही इतनी बारिश कर देता था कि कम से कम फसल बिना कोई रासायनिक खाद के ही उत्पादित हो जाती थी| आज उसके लिए भी कितनी मेहनत करनी पड़ती हैं वही जाने| पर इससे क्या फायदा| एक वक्त आता है जहाँ वादे और अश्वासन दिलाकर अपनी कुर्सी का लालच पूरा हो जाता है फिर किसलिए कोई किसी की फिक्र करे|
और आज की हर पीढ़ी जो अपनी पढ़ाई पूरी नही कर पाये उन्हें पता है कि कौन सी बजह है| अगर आज भी पूरे देश में एकल शिक्षा नीति संचालित हो जाए तो असली विकास होने से देश को कोई नहीं रोक सकता| फिर चाहे वह सरकारी स्कूल ही हो या फिर प्राइवेट स्कूल|
कलम -
सूरज कुमार साहू नील,
बान्धवगढ उमारिया मप्र
#स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
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